रात का वक्त है,हरिश्चन्द्र की आंखे भी बादलों से अपने वजूद को बचाने के लिए लडते चांद पर गडी हुई हैं जबकि फुलकी वहीं पास में सोई हुई है उसके पास एक गिलास रखा है जिसमें करीब आधा गिलास पानी भरा है। करीब एक हफ्ते से कोई चिता नहीं जली तो हरिश्चन्द्र का चूल्हा भी नहीं जला। हरिश्चन्द्र और फुलकी दोनों भूख से बेजार हो चुके हैं। लेकिन करें भी तो क्या क्योंकि जिस रहीमनगर के शमशान की जिम्मेदारी हरिश्चन्द्र के पास है उस इलाके में जब से इलेक्ट्रिक शवदाह गृह का लग गया है तब से दोनों के पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। फुलकी पिता से कहती है कि बाबा इस तरह कब तक हम लोग भूखे पेट जी सकेंगे। कहीं ऐसा ना हो जाए कि चूल्हा जलाने की कोशिशों में एक दिन हम लोगों की चिता ही जल जाए। इस पर हरिश्चन्द्र फुलकी को विश्वास दिलाता है कि ऐसा नहीं होगा । उपरवाला पेट देता है तो उसके भरने का इंताजाम भी करता है। कल जरुर कोई लाश आयेगी,चिता जलेगी और हमारा चूल्हा भी जलेगा।
दिन के दो बजने को थे,हरिश्चन्द्र और फुलकी दोनों कब्रिस्तान के गेट पर खडे किसी लाश के आने का इतजार कर रहे थे। जब भी कब्रिस्तान की पगडन्डी से लगी सडक पर कोई आहट होती। धूल उडती दिखाई देती। हरिश्चन्द्र का चेहरा चमक उठता । लेकिन जल्द ही मायूसी हाथ लगती। धीरे धीरे फिर उम्मीदें काली होने लगीं। सूरज डूब गया। रात हो गई। फुलकी का सब्र जवाब दे रहा था उसने कहा क्यो ना एक बार फिर गांव जाकर किसी लाला से उधार मांग लाएं। लेकिन हरिश्चन्द्र कहता है कि बेटा हम कोशिश कर चुके हैं कोई भी उधार देने के लिए तैयार नहीं हैं सबसे तो उधार लिया जा चुका है। और जब से इलेक्ट्रिक शवदाह गृह बना है तबसे लोग ये ही सवाल पूछते हैं कि उधार तो ले लोगे वापिस कहां से करोगे। फुलकी और कोई धंधा करने के लिए कहती है तो बेचारा हरिश्चन्द्र कराह उठता है कैसे हफ्ते भर के भूखे पेट से कोई काम सूझे या फिर भूखे पेट कैसे कोई नया काम किया जाए। फिलहाल रात गुजरती जाती है और भूख से बेहाल फुलकी के पेट का दर्द बढता जाता है। उसकी कराहें हरिश्चन्द्र के कानों को खाए जा रहीं थी। वो अचानक भगवान से लड़ उठता है कि कौन सा एसा गुनाह हुआ जिसकी सजा उसकी बेटी को दी जा रही है। रात में ही हरिश्चन्द्र इरादा कर लेता है कि वो कल गांव जाकर लोगों से अपनी हालत बताएगा और विनती करेगा कि पारंपरिक तरीके से ही शवदाह किया जाये।फुलकी शमशान के गेट पर बैठी है। उसको हरिश्चन्द्र के लौटने का इंतजार है। भूख से बोझिल आंखों को खोलकर धुंधली होती रौशनी में किसी तरह वो अपने पिता को आते देखना चाहती है। दो दिन हो गए । हरिश्चन्द्र नहीं लौटा था । वक्त अपनी रफ्तार से भागता जा रहा था और भूख थी कि उससे भी ज्यादा रफ्तार से बढ रही थी....चार दिन हो चुके थे। फुलकी को अब अपना ही होश नहीं रहा था। फिर एक बार दिन की रौशनी अंधेरों की गिरफ्त में आती जा रही थी साये लम्बे होते जा रहे थे। फुलकी बेसुध सी गेट पर पड़ी थी। कि अचानक उसको कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं...उसने सिर उठा कर अपनी आंखे पगडन्डी से दूर सड़क की तरफ गड़ा दीं । वहां कुछ साए नजर आ रहे थे। साये साफ हुए तो फुलकी को करीब दस दिन बाद भूख मिटती नजर आने लगी। राम नाम सत्य है की आवाजें अब उसको और भी साफ सुनाई पडने लगी थीं। फुलकी के बुझे चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गई। वो मन ही मन में बोल उठी...वाकई राम नाम सत्य है बापू सच ही कहते थे जिसने पेट दिया है वो ही खाना भी देगा। फुलकी फुर्ती से उठी और आसपास पडी लकडियों को बटोरने लगी। मन ही मन बुदबुदाती जा रही थी। बापू कहां रहे गए मैं अकेले कैसे कर पाउंगी सब कुछ लेकिन जैसे जैसे लाश करीब आती जा रही थी फुलकी की फुर्ती बढती जा रही थी भूख मिटने की आस में वो सारा दर्द सारा गम यहां तक की अपने पिता को भी भूल चुकी थी। अर्थी शमशान के गेट के अन्दर आ चुकी थी। फुलकी चिल्लाई...बाबू जी इधर रखो...इधर लकडियां हमारे पास है। जब तक अर्थी कांधो से उतरती फुल्की जलदी जल्दी लकडियां चिता के लिए उसके करीब रखने लगी। अर्थी लाए लोग अर्थी को खोलते जा रहे थे। फुलकी बुदबुदा रही थी बापू ना जाने कहां रह गया। कैसे कर पाउंगी अकेले। आज मैं भी बापू को दिखा दूंगी कि उनकी बेटी वक्त पडने पर कुछ भी कर सकती है। फुलकी लकड़ियां बटोर चुकी थी उधर लाश को पूरी तरह अर्थी से मुक्त किया जा चुका था । फुलकी लकडियां लेकर अर्थी के पास पंहुची। तभी हवा के एक झोंके से लाश का मुंह खुल जाता है। वो हरिश्चन्द्र की लाश थी।...फुलकी अवाक् सी हाथ में लकडियां लिए खडी रह जाती है। उधर हरिश्चन्द्र की खुली हुई आंखे टिकटिकी लगाए इस तरह आसमान की तरफ उठीं थी मानों वो भगवान से जवाब मांग रही हों..
.हल्की हल्की बारिश होने लगी...

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