PARINDE...

Mere Ghar ke piche jo Jungle ke ped theSukhe pade hain…Unpar kabhi basera thaSafed khubsurat Paridon ka…unki chehchaahat se Subah.. Shaam..Raushan hua karta tha mera makaan…Saher hote hi  Wo na jaane kahan chale jaate…Aur Isha ke azan se pehle wo wapas laut aate…Raat ki dudhiya raushani meinUnhen dekh Aisa lagta Maano hare hare ped peSafed Series Bulb Lage hon…Aaj kal khidki ke bahar jhakne ka dil nahi karta…Kyunki wahan ab wo parinde nahi Dikhte…Naumeedi hoti hai…Dil mein khayal aata hai…Na jaane wo parinde kahan chale gaye…Na jaane wo kab lautenge….Na jaane kab main unhen dekh paaunga…Suna haihar saal wo aate hainrefugeeyon ki tarah….Aur chale jaate hain nayi manzil ki Or….Sunkar thoda sukoon Hua….Mujhe intezzar rahega unka…Kaash in parindo ki tarah…Wo bhi laut aate…Jo hum sab ko chood…Na jaane kahan chale jaate hain…Kabhi na laut aane ke liye…

मैं खड़ा रहा..देखता रहा...
मेरे कमरे में गुलाबी खिलौने को पकड़कर सो रही थी वो...
मासूम सी..भोली सी..
मेरे ख्वाबों की मल्लिका जैसी...
चेहरे पर एक तिल था...
कमर तक जुल्फें बिखरी थीं...
उसका अंगूठा दांतों के बीच दबा था...
मासूमियत इतनी की दिल कर रहा था
उसे बाँहों में भर लूं ...
जुल्फों से मदहोश करने वाली
खुशबू हवा में फ़ैल रही थी...
उसकी तेज़ चलती साँसों से मुद्दत बाद
पूरा कमरा आज सांस ले रहा था...
मैं एक टक उसे देख रहा था..
महसूस कर रहा था...
खुश था...
शायद मेरी बंज़र ज़िन्दगी
में एक कमल खिला था...
जी चाहा उसे उठाऊँ..
बातें करूँ...
पूछूं उससे कौन है
वो
?
जानी
सी...
पहचानी सी...
पर उसकी सोती आँखों को देखकर
ऐसा लगा मानो मुद्दत से नींद तलाश रहीं हों..
चुपचाप मैंने उस पर चद्दर डाल दी...
और उसके सुकून में
खुशियाँ तलाशने लगा...
मुझे नयी ज़िन्दगी मिली थी...
जिसे मैं जीना चाहता था...
तभी मैं जागा...
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था...
पर उसकी जुल्फों की खुशबू...
भी भी कमरे में फ़ैल रही थी...
दर्द में मैं बिलख उठा...
ऐसा लगा कुछ खो गया
आँखों में आँसू छलक उठे...
मैंने दोबारा आँखें बंद कर ली...
ख्वाब था शायद..ख्वाब ही होगा....!!!
सुना है कल रात एक सपने का क़त्ल हुआ है !!!

"किशी" मेरा नया नाम


रात का वक्त है,हरिश्चन्द्र की आंखे भी बादलों से अपने वजूद को बचाने के लिए लडते चांद पर गडी हुई हैं जबकि फुलकी वहीं पास में सोई हुई है उसके पास एक गिलास रखा है जिसमें करीब आधा गिलास पानी भरा है। करीब एक हफ्ते से कोई चिता नहीं जली तो हरिश्चन्द्र का चूल्हा भी नहीं जला। हरिश्चन्द्र और फुलकी दोनों भूख से बेजार हो चुके हैं। लेकिन करें भी तो क्या क्योंकि जिस रहीमनगर के शमशान की जिम्मेदारी हरिश्चन्द्र के पास है उस इलाके में जब से इलेक्ट्रिक शवदाह गृह का लग गया है तब से दोनों के पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। फुलकी पिता से कहती है कि बाबा इस तरह कब तक हम लोग भूखे पेट जी सकेंगे। कहीं ऐसा ना हो जाए कि चूल्हा जलाने की कोशिशों में एक दिन हम लोगों की चिता ही जल जाए। इस पर हरिश्चन्द्र फुलकी को विश्वास दिलाता है कि ऐसा नहीं होगा । उपरवाला पेट देता है तो उसके भरने का इंताजाम भी करता है। कल जरुर कोई लाश आयेगी,चिता जलेगी और हमारा चूल्हा भी जलेगा।
दिन के दो बजने को थे,हरिश्चन्द्र और फुलकी दोनों कब्रिस्तान के गेट पर खडे किसी लाश के आने का इतजार कर रहे थे। जब भी कब्रिस्तान की पगडन्डी से लगी सडक पर कोई आहट होती। धूल उडती दिखाई देती। हरिश्चन्द्र का चेहरा चमक उठता । लेकिन जल्द ही मायूसी हाथ लगती। धीरे धीरे फिर उम्मीदें काली होने लगीं। सूरज डूब गया। रात हो गई। फुलकी का सब्र जवाब दे रहा था उसने कहा क्यो ना एक बार फिर गांव जाकर किसी लाला से उधार मांग लाएं। लेकिन हरिश्चन्द्र कहता है कि बेटा हम कोशिश कर चुके हैं कोई भी उधार देने के लिए तैयार नहीं हैं सबसे तो उधार लिया जा चुका है। और जब से इलेक्ट्रिक शवदाह गृह बना है तबसे लोग ये ही सवाल पूछते हैं कि उधार तो ले लोगे वापिस कहां से करोगे। फुलकी और कोई धंधा करने के लिए कहती है तो बेचारा हरिश्चन्द्र कराह उठता है कैसे हफ्ते भर के भूखे पेट से कोई काम सूझे या फिर भूखे पेट कैसे कोई नया काम किया जाए। फिलहाल रात गुजरती जाती है और भूख से बेहाल फुलकी के पेट का दर्द बढता जाता है। उसकी कराहें हरिश्चन्द्र के कानों को खाए जा रहीं थी। वो अचानक भगवान से लड़ उठता है कि कौन सा एसा गुनाह हुआ जिसकी सजा उसकी बेटी को दी जा रही है। रात में ही हरिश्चन्द्र इरादा कर लेता है कि वो कल गांव जाकर लोगों से अपनी हालत बताएगा और विनती करेगा कि पारंपरिक तरीके से ही शवदाह किया जाये।फुलकी शमशान के गेट पर बैठी है। उसको हरिश्चन्द्र के लौटने का इंतजार है। भूख से बोझिल आंखों को खोलकर धुंधली होती रौशनी में किसी तरह वो अपने पिता को आते देखना चाहती है। दो दिन हो गए । हरिश्चन्द्र नहीं लौटा था । वक्त अपनी रफ्तार से भागता जा रहा था और भूख थी कि उससे भी ज्यादा रफ्तार से बढ रही थी....चार दिन हो चुके थे। फुलकी को अब अपना ही होश नहीं रहा था। फिर एक बार दिन की रौशनी अंधेरों की गिरफ्त में आती जा रही थी साये लम्बे होते जा रहे थे। फुलकी बेसुध सी गेट पर पड़ी थी। कि अचानक उसको कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं...उसने सिर उठा कर अपनी आंखे पगडन्डी से दूर सड़क की तरफ गड़ा दीं । वहां कुछ साए नजर आ रहे थे। साये साफ हुए तो फुलकी को करीब दस दिन बाद भूख मिटती नजर आने लगी। राम नाम सत्य है की आवाजें अब उसको और भी साफ सुनाई पडने लगी थीं। फुलकी के बुझे चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गई। वो मन ही मन में बोल उठी...वाकई राम नाम सत्य है बापू सच ही कहते थे जिसने पेट दिया है वो ही खाना भी देगा। फुलकी फुर्ती से उठी और आसपास पडी लकडियों को बटोरने लगी। मन ही मन बुदबुदाती जा रही थी। बापू कहां रहे गए मैं अकेले कैसे कर पाउंगी सब कुछ लेकिन जैसे जैसे लाश करीब आती जा रही थी फुलकी की फुर्ती बढती जा रही थी भूख मिटने की आस में वो सारा दर्द सारा गम यहां तक की अपने पिता को भी भूल चुकी थी। अर्थी शमशान के गेट के अन्दर आ चुकी थी। फुलकी चिल्लाई...बाबू जी इधर रखो...इधर लकडियां हमारे पास है। जब तक अर्थी कांधो से उतरती फुल्की जलदी जल्दी लकडियां चिता के लिए उसके करीब रखने लगी। अर्थी लाए लोग अर्थी को खोलते जा रहे थे। फुलकी बुदबुदा रही थी बापू ना जाने कहां रह गया। कैसे कर पाउंगी अकेले। आज मैं भी बापू को दिखा दूंगी कि उनकी बेटी वक्त पडने पर कुछ भी कर सकती है। फुलकी लकड़ियां बटोर चुकी थी उधर लाश को पूरी तरह अर्थी से मुक्त किया जा चुका था । फुलकी लकडियां लेकर अर्थी के पास पंहुची। तभी हवा के एक झोंके से लाश का मुंह खुल जाता है। वो हरिश्चन्द्र की लाश थी।...फुलकी अवाक् सी हाथ में लकडियां लिए खडी रह जाती है। उधर हरिश्चन्द्र की खुली हुई आंखे टिकटिकी लगाए इस तरह आसमान की तरफ उठीं थी मानों वो भगवान से जवाब मांग रही हों..
.हल्की हल्की बारिश होने लगी...

जिन्दगी मुझसे कुछ खफा सी लगे।
सांस लेना भी एक सजा सी लगे।।
हम ये आकर कहां पे ठहरे हैं।
हर तरफ अजनबी से चेहरे हैं।
लोग गूंगें है और बहरे हैं
बात करना भी एक खता सी लगे।
जिन्दगी मुझसे कुछ खफा सी लगे....
मेरे क़ातिल को एक खत लिख दो
उसमें एक ये पयाम बस लिख दो
मैं तुझसे जख्म खा के जीता हूं
ये ही मुझको तो अब शफा सी लगे।।
जिन्दगी मुझसे कुछ खफा सी लगे ...


लालू बन गए हैं स्क्रिप्ट राईटर...अमर सिंह के बाद अब लालू भी लिखने लगे है फिल्मों के स्क्रिप्ट...इस फिल्म में हर वो मसाला है जो आमतौर पर किसी हिंदी मसाला फिल्म में होती है...जरा सोचिये फिल्म के डाईलॉग कैसे होंगे....भैंस पर बैठे चले आ रहे हैं लालू और सामने हैं उनके साले साधू जो किसी नहर के किनारे बैठ कर दातुन कर रहे हैं....
लालू : अरे सधुआ - हमारा पास गाय है, भैंस हैं, रेल है, तोहरी बहिन राबडी है...तोहरा पास का है रे...
साधू : हमरा पास मैडम हैं...
मैडम मतलब तो बताने की जरुरत नहीं ना आपको...बिहार में राजनीति ऐसी करवट लेगी किसी ने सोचा भी नहीं था...जब राम विलास के झोपडी में लालू ने लालटेन जलाने की तैयारी की तो खफा हो गए उनके जोरू के भाई साधू यादव....लालू कांग्रेस का हाथ छोड़ सवार हो गए मुलायम की साइकिल पर..ज़ाहिर है उनके साले को कुछ न कुछ तो करना ही था..उन्होंने मौके का ज़बरदस्त फायदा उठाया और थाम लिया कांग्रेस का हाथ...जो पहले कभी गरीबों के साथ हुआ करता था...अब गुंडों और मवालियों के साथ भी है....खैर लालू - साधू के इस कदम से बेहद खफा हैं... है न फिल्म में ज़बरदस्त ड्रामा... फिल्म के गाने कैसे होंगे जरा ये भी सुन ही लेते हैं..
"साला गाली देवे...
मैडम जी हड़का देवें...
सधुआ है ब्लडी फूल...
सधुआ है अनारी...
चला है परदेश...
कोनो उसको बताओ
सबसे प्यारा जीजा का देश...
लालू नहीं है फूल..."
अब जरा सोचिये इस गाने के बाद एक शॉट है जिसमे चले आ रहे हैं मुलायम राम विलास और लालू यादव जी...
साइकिल पर बैठकर...साइकिल चला रहे हैं मुलायम,आगे बैठे हैं लालू और पीछे रामविलास..ये तीनो गिर जाते हैं कीचड़ में..वैसे देखा जाये तो तीनो वाकई कीचड़ में ही हैं...कीचड़ में लालू पूछ रहे हैं अपने अंदाज़ में " कादो रानी कितना पानी " जवाब कौन देगा ? जिस कीचड़ में ये तीनो गिरें हैं उसकी गहराई भाई नाप पाना आसन नहीं...एक और खास बात है..इस कीचड़ में कमल भी नहीं खिलता..मतलब उन्हें कीडे मकोडों के अलावा कुछ भी नहीं मिलेगा...खैर राजनीति है ...कब कहाँ क्या हो जाये कोई नहीं कह सकता...अन्दर ही अन्दर प्रधान मंत्री बन्ने का ख्वाब संजोय रखने वाले ये तीनो तीसरे विकल्प की तलाश में तो जुटे हैं लेकिन इसके लिए या तो उन्हें हाथ पकड़ना पड़ेगा..या कीचड़ में कमल खिलाना पड़ेगा...बिना उसके तो ये ख्वाब मुंगेरी लाल के हसीन सपने की तरह ही दम तोड़ देगा..." राम विलास लालू और मुलायम " वो कहते हैं न " तीन तिगाडा काम बिगाडा "...ये तीनो ओवर कांफिडेंट हैं...लेकिन जहाँ से मैं देख पा रहा हूँ खुद को त्रिदेव समझने वाले इन नेताओं की बिहार में तो ज़मीं खिसकती ही दिख रही है...और फायदा होता दिख रहा है लालू के फिल्म के विलेन नीतिश कुमार को जिन्होंने अपनी साफ़ सुथरी छवि और विकास कार्यों से वोटर्स को रिझा रखा है...खैर फिल्म का क्लाइमेक्स चाहे जो भी हो...मुझे जो उम्मीद है की चुनाव के नतीजे आने के बाद ये संभव है की सत्ता सुख और कुर्सी की रस्सा कसी में तीनो एक दुसरे के लिए यही गाना गाते दिखेंगे..मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया है सुना है की तू बेवफा हो गया..


मुझसे पूछे गर खुदा...

मेरी एक चाहत...

मैं हर रोज़ सुबह...

तुम्हारी साँसों की गति को

अपने कांधे पर...

महसूस करना चाहूँगा...

तुम्हारी लबों की गर्माहट...

अपने गालों पर...

महसूस करना चाहूँगा....

तुम्हारी उँगलियों को

अपने बदन पर महसूस करना चाहूँगा....

फिर आज मैं चला जाऊंगा...

इस डर से

तुम्हारी धडकनों को तेज़ धड़कते...

महसूस करना चाहूँगा....

जानता हूँ...

कल्पना और हकीक़त के फासले...

जनता हूँ...

खुदा नहीं पूछता किसी से....

उसकी कोई चाहत...

जानता हूँ...

जो लिखता है वो अपनी कलम से...

वही होती है तकदीर...

इस ज़िन्दगी का तो पता नहीं...

अगले जनम में ही सही

मैं तुम्हें

महसूस करना चाहता हूँ....